कभी-कभी कवि कुछ ऐसे रच जाता है जो न कभी चुकता है … और न कभी बीतता है। समय और कालखंड के फरेब से इतर, वह रचना, आँखों के सामने हमेशा हरी ही रहती है … मैं आज जिस कविता के संदर्भ में यह बात कह रही हूं, वह हममें से कई लोगों ने अपनी ग्यारहवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक में पढ़ा होगा। यह कविता गांधीवादी कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने लिखी है जिसका शीर्षक है घर की याद।
मित्रो, घर की याद कविता उन्होंने तब लिखी जब वह आजादी के आंदोलन के दौरान जेल में थे। एक रात तेज बारिश को देखते हुए उन्होंने यह कालजयी कविता लिखी … आइए अब ज्यादा देर न गंवाते हुए मैं पूजा प्रसाद, न्यूज 18 हिंदी के लिए आज के पॉडकास्ट में इसे आपके साथ बांटती हूं …
आज पानी गिर रहा है,
बहुत पानी गिर रहा है,
रात भर गिरता रहा है,
प्राण मन घिरता रहा है,
अब सवेरा हो गया है,
जब सवेरा हो गया है,
ठीक है मैंने न जाना,
बहुत सोकर सिर्फ़ माना जाता है-
क्योंकि बादल की अँधेरी,
अभी तक भी घनेरी है,
अभी तक चुपचाप सब,
रातवाली छाप है सब,
गिर रहा पानी ज़रा-झरना,
हिल्स हिल्स हर-हर,
बह रही है हवा सर-सर,
काँपते हैं प्राण थर-थर,
बहुत पानी गिर रहा है,
घर नज़र में तिर रहा है,
घर कि मुझे दूर है जो,
घर खुशी का पूर्वा है जो,
घर उस घर में चार भाई,
मायके में बहिन आई,
बहिन आई बाप के घर,
हाय रे परिताप के घर!
आज का दिन दिन नहीं है,
क्योंकि यह छीन नहीं है,
एक छिन सौ साल है रे,
हाय कैसा तरस है रे,
घर उस घर में सब शामिल है,
सब कि इतने जुड़े हुए हैं,
चार भाई चार बहिनें,
भुजा भाई प्रेम बहिनेंद,
और माँ बिन-पढ़ी मेरी,
दुःख में वह गढ़ी मेरी
माँ कि जिसकी गोद में सिर,
रख लिया तो दुख नहीं फिर,
माँ कि जिसका स्नेह-धारा,
का यहाँ तक भी पसारा,
उसे लिखना आता है नहीं,
जो कि पत्र पाता है।
और पानी गिर रहा है,
घर चतुर्दिक घिर रहा है,
पिताजी भोले बाबा,
वज्र-भुज नवनीत-सा उर,
पिताजी जिन्को बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं पास्ता,
जो अभी भी दौड़ पर जाएँ,
जो अभी भी खिलखिलाएँ,
मृत्यु के आगे न हिचकें,
शेर के आगे न बिड़कें,
बोल में बादल गरजता,
काम में झंझट लरजता,
आज गीता पाठ द्वारा,
दंड दो सौ साठ द्वारा,
एसए मुगदर हिला के बारे में,
मूठ उनकी मिल गई,
जब वह नीचे आए,
नैन जल से छाए होंगे,
हाय, पानी गिर रहा है,
घर नज़र में तिर रहा है,
न्यूज 18 पॉडकास्ट।
चार भाई चार बहिनें,
भुजा भाई प्यार बहना,
खेलते हैं या खड़े होते हैं,
नज़र उन्हीं पर पड़ेगी।
पिताजी जिन्को बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं पास्ता,
रो समान होगा,
पांचवे का नाम
पांचवाँ हूँ मैं अभाग,
किसके सोने पर सुहागा,
पिता जी कहते हैं रहो,
प्यार में बहते रहे हैं,
आज उनके स्वर्ण पुत्र,
लगे रहेंगे उन्हें हेटे,
क्योंकि मैं उन पर सुहागा हूँ
बँधा बैठा हूँ अभाग,
और माँ ने कहा,
दुःख कितना भी हो,
किसका पानी,
वहाँ अच्छा है भवानी,
वह तुम्हारा मन समझकर,
और अपनापन समझकर,
सो ठीक ही है,
यह तुम्हारा रिसाव ही है,
पाँव जो पीछे हटता है,
कोख को मेरी लाजता,
इस तरह होओ न रॉ,
रो पड़ेंगे और बच्चे,
पिताजी ने कहा होगा,
हाय, कैसा सहा होगा,
कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ,
धीर मैं खोता हूँ, कहाँ हूँ,
गिर रहा है आज पानी,
याद आता है भवानी,
वह प्यारी थी,
रात-दिन की झड़ी-झिरी,
खुले सिर नंगे बदन वह,
घूमता-फिरता मगन वह,
बड़े बाड़े में जो जाता है,
बी लौकी का लगाता,
तुझे सम्पूर्णता कि बेला
ने फलानी फूल झेला,
हो कि उसके साथ चला जाता है,
आज से लागू होता है,
मैं न रोऊँगा, —कहा होगा,
और फिर से पानी बहाना होगा,
दृश्य उसके बाद का रे,
पांचवें की याद का रे,
भाई पागल, बहरीन,
और अम्मा ठीक बादल,
और बरजी और सरला,
सहज जल, सहज तरला,
शर्म से रो भी न दिखा,
ख़ूब छटपटाएँ,
आज ऐसा कुछ हुआ होगा,
आज सबका मन चुआ होगा।
अभी पानी थम गया है,
मन निहायत नम गया है,
एक से बादल 5.6 हैं,
गगन-भर फैले रमे हैं,
ढेर है उनका, न फाँकें,
जो कि किरणें झुकें-झाँकें,
लग रहे हैं वे मुझे योंस,
माँ कि आँगन लीप दे ज्यों,
गगन-आँगन की लुनाई,
दिशा के मन में समाई,
दश-दिशा चुपचाप है रे,
स्वस्थ मन की छाप है रे,
झाड़ आँखें बन्द करके,
श्वास सुस्थिर मंद द्वारा,
हिले बिन चुपके खड़े हैं,
क्षितिज पर जैसे जड़े हैं,
एक पंछी बोलता है,
घाव उर के खोल है,
आदमी के उर बिचारे,
किसलिए इतनी तृषा रे,
जा ज़रा-सा दुःख क्यों,
सह संभव क्या ऐसा है,
और इस पर बस नहीं है,
बस बिना कुछ रस नहीं है,
हवा आई उड़ती चली गई,
लहर आई बारी गई तू,
झटका लगा टूटा बहाता,
गिरा नीचे फूट बैठा,
ऐसा कि प्रिय से दूर,
बह गए रे फेर के,
दुःख भर क्या तुम्हारा है,
अश्रु साबित होस तेरा!
पिताजी का वेश मेको,
दे रहा है क्लेश मुझको,
देह एक पहाड़ जैसे,
मन की बड़ का झाड़ जैसे,
एक पत्ता टूट जाता है,
बसा कि धारा फूट जाए,
एक हल्की चोटों ले ले,
दूध की नद्दी उमग ले,
एक टहनी कम न होले,
कम कहाँ कि ख़म न होले,
ध्यान कैसे फिर से,
उतनी ही जड़ें उतानी!
इस तरह से हाल ही में उनका,
इस तरह का ख़याल उनका,
हवा उन्हें डायर देते हैं,
यह नहीं जी चीर देना,
हे सगले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,
तुम साल लो वे न सालेंड्स,
पांचवे को वे न तरसें,
मैं मज़े में हूँ सही है,
घर नहीं हूँ बस यही है,
किंतु यह बस बड़ा बड़ा है,
इसी तरह से सबिरास है,
किन्तु उन्हें यह न कहना,
उन्हें डायर रहना,
उनका कहना है कि मैं लिख रहा हूँ,
उनका कहना है,
काम करता हूँ कि कह रहा हूँ,
नाम कहता हूँ कि,
चाहते हैं लोग, कहते हैं,
कुछ कहना मत करो,
और कहना मस्त हूँ मैं,
कातने में व्यर्थ हूँ मैं,
वज़न सतर से मेरा,
और भोजन की खान,
कूदता हूँ, खेलता हूँ,
दुख डट कर झेलता हूँ,
और कहना मस्त हूँ मैं,
यों न कहना अस्त हूँ मैं,
हाय रे, ऐसा न कहना,
है कि जो वैसा न कहना,
कह न दे जता हूँ,
आदमी से भागता हूँ,
कह न दे मौन हूँ मैं,
ख़ुद न समझूँ कौन हूँ मैं,
कुछ कहना न देना,
उन्हें कोई मुश्किल नहीं दे,
हे सगले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,
तुम वर्षों लो वे न बरसे,
पांचवें को वे न तरसें।
इस लंबी कविता के साथ घर की याद के बीच में आपको छोड़कर मैं विदा लेती हूं। अगली बार, फिर मिलेंगे, एक नया रचनाकार के साथ, परिषद 18 हिंदी के पॉडकॉस्ट में। नमस्कार।